Sunday, February 27, 2022

युद्ध कब शांति का विकल्प रहे हैं



 रात युक्रेन के लिए बेहद डरावनी बीतेगी यही समाचार सुनते-सुनते सो गई थी, मुझसे वहाँ के नागरिकों के आँसू देखे नहीं जा रहे थे, न सुबह समाचार देखने का ही मन हुआ।लेकिन कब तक हम इन्हीं सब दुखदाई पलों से भागते रहेंगे?

आपको याद न हो तो बता देती हूँ आज ही के दिन एक भीषण अग्निकांड हुआ था।जी हां गुजरात के गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस की एक पूरी की पूरी बोगी जला दी गई थी, जिसमें 59 लोगों की मौत हो गई। ये वही लोग थे जो अयोध्या से लौट रहे थे। इसके बाद वही हुआ जो होता आया है,सांप्रदायिक दंगे, जानमाल का नुकसान।

आम जनता से पूछिए तो युद्ध कब शांति का विकल्प रहे हैं, युद्ध से कभी मसले हल नहीं हुए हैं। मगर युद्ध होते रहे हैं।दुआ करें यह युद्ध जल्दी समाप्त हो जाए।

हर युद्ध में हज़ारों देशभक्त शहीद हो जाते हैं कल रात युक्रेन के एक शहीद विटाली का चेहरा भी देखा जिसने पुल को उड़ाने के लिए स्वयं का बलिदान कर दिया, और मुझे यह भी याद आया कि...

आज ही के दिन आज़ादी के दीवाने चंद्रशेखर आज़ाद ने अंग्रेजों की गिरफ्तारी से बचने के लिए खुद को गोली मार ली थी।

 एक युद्ध यह भी था।

देशभक्ति को नमन। देशभक्तों को नमन।

सुनीता शानू

Wednesday, July 8, 2020

पढ़िए एक व्यंग्य


दोस्तों, बहुत समय बाद पुरूषों के चटोरेपन पर एक व्यंग्य लिखा है, पढ़िए भारत भास्कर में और आनंद लीजिए।
मूल पाठ
यह मुंह और उनकी प्रयोगशाला 

आप सोच रहे होंगे कि प्रयोगशाला से हमारे मुंह का क्या लेना देना है। लेकिन मैं बताऊंगा तो आप सब भी अपना मुंह संभाल कर बैठ जाएंगे। अब बात ही कुछ ऐसी है जानते सब हैं, मानते भी सब हैं लेकिन बताने की हिम्मत किसी में नहीं। 
अब बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा भी कौन भला। 
तो बात यह है कि जबसे शादी हुई है हमारा मुंह प्रयोगशाला बन गया है, जहां सुबह उठने से लेकर रात सोने तक टेस्टिंग चलती रहती है और रात दिन टेस्टिंग से जीभ का स्वाद भी जाता रहा है।
अब यह बड़ा मुंह छोटी बात हो जाएगी या जबरदस्त तकरार ही हो जाएगी यदि मैं प्रयोग के लिए इंकार कर दूं...
यह दर्द मेरा अकेले का भी नहीं है, जितने भी शर्मा जी, वर्मा जी, श्रीमान जी हैं, जो पत्नी को लहसुन, प्याज काट कर देते हैं, आलू, मटर छील कर देते हैं। यह सबका ही दर्द है। सारे के सारे हम श्रीमती जी की प्रयोगशाला के श्वेत मूषक ही हैं पहले पिताजी भी यही धर्म निभाते थे और जब से शादी हुई है उनके ही पद चिन्हों पर हम चल रहे हैं, हमारे बाद यह गद्दी बेटा संभालेगा... यह एक ऐसी प्रयोगशाला है, जिसका अनुभव असल जिंदगी में ही आ पाता है थ्योरी में कहीं पढ़ाया नहीं गया था।
मुझे हर दिन मुंह की खानी पड़ती है, यदि गलती से भी सब्जी में नमक-मिर्च कम ज्यादा हो जाए। तुरंत पूछा जाता है किसने चेक किया था, बनाने वाले से ज्यादा चखने वाले की गलती ही पॉइंटेड की जाती है।
लेकिन यही सच है इस समय मेरा मुंह प्रयोगशाला ही बना हुआ है। यह भी सच है कि कोई भी नया काम करने के लिए  प्रयोग होने जरूरी है, तब जाकर ही कार्य सिद्ध हो पाता है, सरकार के पास भी कई प्रयोगशालाएं हैं, जैसे भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जन्तु विज्ञान, और वनस्पति विज्ञान।  इन सभी में रात दिन प्रयोग होने पर ही मनुष्य का जीवन सरल और सहज हो पाता है। बहरहाल ब्यूटी विदाउट क्रुएलिटी नामक संस्था के मुताबिक हर साल दुनिया में 11. 5 करोड़ जन्तु प्रयोगशाला में मारे जाते हैं, जिसमें बंदर, खरगोश, चूहे मुख्य रूप से इस्तेमाल होते हैं। स्कूलों की प्रयोगशाला में भी कॉकरोच, मेंढक, चूहे प्रयोग में लिए जाते हैं। फिलहाल मैं भी अपने आप को उनकी पाककला की प्रयोगशाला में प्रयुक्त होने वाला सफेद चूहा समझने लगा हूं।

हम पुरूषों को तो हमेशा से चटोरा ही कहा जाता रहा है, कभी भूलकर भी ज़रा सी फरमाइश की नहीं कि सुनने को मिलता है , "अरे लीला क्या करूं बंटी के पापा तो यह खाते हैं' वह खाते हैं, सारी उम्र इनकी फरमाइश में बीत रही है, क्या है कि खाने पीने के शौकीन हैं"। अब जैसे मैडम तो कुछ खाती ही नहीं हैं। खैर पकवान की एक थाली बनते-बनते मुझे कितनी परीक्षाओं से गुजरना होता है, यह जान लोगे तो समझ पाओगे आदमी किस मिट्टी का बना होता है, सबसे पहले झोला उठाकर सब्जी लाता है, दो  मिनट आराम किया नहीं कि श्रीमती जी मटर रख जाती हैं छीलने के लिए, अभी मटर छील कर जीत हासिल ही करता है कि आवाज़ आती है, सुनो ज़रा दूध के पास खड़े हो जाओ न, अच्छा सुनो! खड़े-खड़े आलू ही चीज दो, सुनो! मुंह खोलो, देखो नमक दो बार तो नहीं पड़ गया...अच्छा जरा कढ़ाही में चमचा चला दो। डिब्बे पकड़ लो टेबल पर रखने में मदद कर दो और इसके बाद... खीरा सही-सही काटना कढ़वा ना हो... प्याज काटना भूल गया तो बस सुनने को मिला,... आपसे तो छोटा सा काम भी नहीं होता...।
 मैं जरा पसीना पौंछ ही रहा था कि रसोई से आवाज़ आने लगी, मैं अकेली कितना काम करूंगी, मेरा दिल ही जानता है, सारा दिन रसोई में खड़े रहो तो पता चले कोई एक कप चाय तक नहीं पूछने वाला...। और उनकी इन बातों पर बच्चे ही नहीं पिताजी भी हां में गर्दन हिलाते और मुझे घूरते नज़र आते हैं।
दोस्तों हद तो उस वक्त हो जाती है, जब वह बड़े प्यार से बोलती है, सुनो! जरा मुंह खोलना... मैं जैसे ही पूछने के लिए मुंह खोलता हूं, चम्मच मेरे मुंह में... अब मेरे चेहरे का परीक्षण होता है। अगर गुस्से से मुंह बन जाता है तो जवाब मिलता है, "गुस्सा क्यों होते हो दूध फटा है या दही बन गया चेक कर रही थी, अब मेरा मुंह खराब हो इस बात से कुछ लेना देना नहीं उन्हें तो उनकी मां ने कहा था, पति के दिल का दरवाजा उसके पेट से होकर जाता है" तब से आज तक दिन-रात उन्होंने मेरे पेट के दरवाज़े को बंद ही नहीं होने दिया। मुंह चख-चखकर चटोरा हो चुका है और पेट फूल कर  गैस, खट्टी डकार, बदहजमी का शिकार हो गया है।
दोस्तों सरकार ने तो प्रयोगशाला में जानवरों पर प्रयोग की रोक लगा दी है,  लेकिन हमारे मुंह का बचना नामुमकिन है।
सुनीता शानू

Monday, May 25, 2020

सपने साजन के

एक लड़की के जीवन में साजन के सपने क्या मायने रखते हैं यह बताने की जरूरत नहीं है, और यह भी झूठ ही होगा कि कोई लड़की सपने देखे और उसमें साजन को न देखे। कोई न बताये तो यह और बात है, हम तो झूठ नहीं बोलते  तो भई नहीं बोलते। जब दादी परियों की और राजकुमार की कहानियाँ सुनाती थी उस वक्त ही सपने शुरू हो गये थे, वो साजन कभी चंदामामा के राजा विक्रम सा नज़र आता था तो कभी, जादूगर मैंड्रेक तो कभी डायना पामेर का बेताल... अब ये तो बचपन ही था जो दादी के बताये सपनों के घोड़े पर सवार होकर दुनियाभर की सैर करता था... 
शायद ही कोई इंसान होगा जो सपने नहीं देखता होगा, और मै तो पागलपन की हद तक सपने देखा करती थी, अक्सर घर में माँ से और स्कूल में मैडम से डॉंट खाया करती थी। ऎसा नहीं कि सपने सोने के बाद आते थे, माँ कहती थी, कि मै घोड़े बेच कर सोया करती थी, रात भर सपने में न कोई राजकुमार आता था, न ही कोई परी, लेकिन हाँ दिन के उजाले में परियों से मिलने के और राजकुमार के बादलों में से घोड़े पर सवार होकर आने के सपने जरूर देखा करती थी। मेरे हर सपने में किसी धारावाहिक उपन्यास की तरह क्रमशः लग जाता था, आप कह सकते हैं जागती आंखों के ये सपने एक कहानी होते हैं तो कह सकते हैं, कहानी के सभी किरदार मेरी मर्जी के होते थे। एक रोज की बात है, मै छत पर बादलों को गौर से देख रही थी, अचानक बादलों ने रूप बदलना शुरू किया और देखते ही देखते सूरज की किरणों से नहाये बादल सोने का रथ बन गये, और उन पर सवार था मेरे सपनों का राजकुमार, बस क्या था मैने जोर-जोर से चिल्लाना शुरु कर दिया, माँ बादलों में से मेरा बिंद आ गया, जल्दी आओ देखो रथ पर सवार हैं कहीं चला न जाये। मेरी आवाज सुनकर पड़ौसन भी हँसते हुए आ गई और बोली, बींद इतनी आसानी से नहीं आयेगा बिटिया, सारे गाँव को खबर हो जायेगी, उसको ढूँढने में तेरी मां की चप्पल घिस जायेगी। उस दिन तो बहुत गुस्सा आया, जब मेरे सपनों का रथ अचानक तेज़ हवा से तितर-बितर हो गया। लेकिन सपने देखना बंद नहीं हुआ। मुझे लगता था, जिस रोज कोई सपना नहीं आयेगा, मेरी धड़कन बंद हो गई होगी। भला सपनों का धड़कनों से क्या लेना-देना। लेकिन आप ही सोचिये जरा बिना सपनों के बेमकसद सी ज़िंदगी भी कोई ज़िंदगी होती है भला।
हाँ ये सच है सपने जिस दिन नहीं होंगे इंसान ज़िंदा भी नहीं होगा।...
सुनीता शानू

Sunday, April 26, 2020

बड़े लोगों की बीमारी


(कोरोना पर दिल्ली की हालिया रिपोर्ट...)
यह तो सब जानते हैं दिल्ली में एक ऐसी आबादी भी बसती है जो पढ़ी-लिखी नही है, और जिनका काम है रोज कमाना और रोज खाना, इनमें आधे लोग ऐसे हैं जिनके पास राशनकार्ड भी नहीं है।
अब बात आती है क्या लॉक डाउन का दिल्ली अच्छी तरह से पालन कर रही है। तो यह सच है डर एक वजह ऐसी है जिसकी वजह से लोग मास्क नहीं है तो कपड़ों से मुँह ढक रहे हैं, अब यह डर कोरोना का हो या पुलिस के डंडों का। लेकिन है डर ही जिसकी वजह से मास्क पहन रहे हैं।
आज हम लोग पहुंचे लिबर्टी सिनेमा के पास बनी एक बस्ती में, यह देवनगर के नाम से जानी जाती है, यहां तकरीबन 300 झुग्गी हैं, किसी में चार तो किसी में 6 लोग रहते हैं। 1500/2000 के करीब लोग हैं यहां। अब बात आती है सरकार के सबको भोजन देने की तो सरकार ने सबको देने के लिए भोजन की व्यवस्था की है, जिसमें एक आदमी के लिए 5 किलो गेहूं, दो किलो दाल का प्रावधान रखा गया है। समस्या यह आ रही है कि 300 में से 180 लोगों के पास ही राशनकार्ड है बाकी लोगों के पास कोई कागज़ नहीं है तो उन्हें भोजन नहीं मिल सकता है। दूसरी बात गेहूं चक्की वाला भी परेशान करता है उसकी भी मजबूरी है एक साथ कितने लोगों का आटा पीस सकेगा।
झुग्गियों के आसपास देखें या सड़कों पर देखें लोग सोये हुए बैठे हुए हैं। कोई खाना बांटने भी जाता है तो टूट पड़ते हैं।
हमें देखते ही सबने मुंह ढक लिया, मैंने समझाया आप लोगों को आपस में मुंह ढक कर दूरी बना कर रहना चाहिए। तब उनमें से एक महिला बोली हमें कुछ नहीं होगा बीबीजी, यह बड़े लोगों की बीमारी है, हम तो एक कमरे में छ: लोग रहते हैं दूरी कैसे बनाएंगे।

सोचने वाली बात है यह कोरोनावायरस का खतरा क्या सिर्फ हम लोगों को ही है? हम लोग दो महीने का राशन खरीद कर खुद को लॉक करके बैठ गए हैं दीन-दुखियों से बेखबर। हमें उन लोगों की ज़रा भी फ़िक्र नहीं है जो बरसों से हमारे लिए काम करते रहे हैं। हमने प्रधानमंत्री केयर में पैसा जमा करवाया और हमारी ड्यूटी खत्म हुई।
यदि सचमुच कोरोनावायरस भयावह है तो दिल्ली की सरकार को इन झुग्गी में रहने वाले लोगों को निसंक्रमित करना होगा वरना इन्हें संभालना नामुमकिन हो जाएगा।
अब आपको मैं जाने-माने होस्पिटल इरविन लेकर चलती हूं। यहां पहुंचते ही लोगों की भीड़ लग गई, इसमें ऐसे लोग भी थे जो अच्छे घरों के पढ़े-लिखे लोग थे। ऐसे लोग भी थे मजबूरी में किसी मरीज के साथ रुके हुए थे। अधिकतर कपड़ों से सभ्य नज़र आ रहे थे मगर चेहरे पर भूख नज़र आ रही थी।  उन लोगों का कहना था कि हमें खाना नहीं मिल रहा है, और जब दूसरे अस्पताल की कैंटीन से लेने जाते हैं वह दो रोटी के 60 रू ले रहा है। उनके चेहरों पर लाचारी साफ नजर आ रही थी।
उसी भीड़ में एक लड़का भी खड़ा था जो कुछ परेशान सा सबको देख रहा था, आखिर उससे भी भूख सहन नहीं हुई और वह मुझे बोला यह खाना मैं खरीदना चाहता हूं, मेरे बहुत मना करने पर भी वह 100 रू का नोट थमा कर खाना लेकर भीतर भाग गया। मतलब की उसके पास पैसा तो था खाना नहीं था।
पुलिस ने खाना खिलाने वालों के लिए भी एरिया निर्धारित किए हुए हैं, सभी एंजियो वालों को कर्फ्यू लैटर लेकर रखना होगा वरना आप खाना भी नहीं खिला सकते हैं।
जगह-जगह पुलिस और आर्मी तैनात थी, और लोग स्कूटर और बाइक पर दो तीन की सवारी में घूम रहे थे। गाडियां चल रही थी। दिन भर दुकानें खुली रहने की वजह से लॉक डाउन में भी लोग बाजारों में घूम रहे थे। पुलिस की नाक के नीचे तरह-तरह के बहाने बना कर लोग घूम रहे थे।

एक गुटखा खाने वाले से जब पूछा कि गुटखा तो बंद हो गया होगा उसने जवाब दिया, मिल रहा है बस पैसे ज्यादा लग रहे हैं। तो यह अंदर की बात है जिस बात का डर था वही हुआ है, कालाबाजारी भी हो रही है क्योंकि लोग नहीं मान रहे हैं।

अब बात आती है सरकार ने भोजन के नाम पर जो करोड़ों रुपए खर्च किए हैं वह कहां जा रहे हैं तो यह एक बहुत बड़ा सच है हमारे देश का। यहां कोई किसी के खिलाफ नहीं बोलता, जो बोलते है उन्हें खाना मिल जाता है तो वह कालाबाजारी होने देते हैं उसे पकड़ कर पीटते नहीं, अपने हक के लिए लड़ते नहीं। सरकार द्वारा भेजी गई मदद गरीब तक पहुंचने में कई लोगों के हाथ से होकर गुजरती है। ये हाथ पहले अपना पेट भरते हैं, फिर भूखी जनता को तरसा तरसा कर खाना देते हैं। इतने दिन में मुझे एक भी चैनल वाला या अखबार वाला नज़र नहीं आया। हां कुछ एनजीओ की गाड़ियां जरूर खाना खिलाने आई थी। और बस्ती के लोग हाथों में पैकेट पकड़े खड़े थे।
अब बात वही आती है कहीं लोग भूखे हैं के चक्कर में सब लोग गरीबों को खाना खिलाने तो नहीं जा रहे हैं।
कहीं मुफ्त खाने की आदत इन्हें सरकार के खिलाफ इस्तेमाल करने वालों के लिए हथियार तो नहीं बना लेगी।
तो आप यह सोच सकते हैं क्यूंकि ऐसा भी संभव है, हमारे देश में भ्रष्टाचार कभी समाप्त नहीं हो सकता, सरकार हर जगह देखने जा नहीं सकती, संकट काल में हमेशा गरीब ही मरता है।
यदि कोरोनावायरस से संकट की बात करें तो खाना खिलाने वालों को भी डर है, बस्ती हो या अस्पताल लोग पूरी तरह से दूरी बना ही नहीं पाते हैं, बार बार मना करने के बावजूद लाइन नहीं बना पाते, बच्चे तो हाथ पैर पकड़ लटकने लगते हैं। ऐसे में खुद को कैसे बचाया जा सकता है?
बाहर खाना खिलाकर आने के बाद वापस लौटते लोग कितने सुरक्षित हैं कौन जाने। और यदि न खिलाया जाए तो ध्यान दीजिए गली के आवारा कुत्ते और गाय भूख से कैसे बिलबिला रहे हैं। चिड़िया मर रही हैं, तो मनुष्यों की हालत क्या होगी।
अब आप इस बात पर भी ज़रूर ध्यान दें अस्पतालों में नर्स,वार्ड ब्वाय और मरीज़ के संगे संबंधियों को खाना नहीं मिल पा रहा है, झुग्गियों में पहुंचने वाले ज़रा अस्पताल भी पहुंचे और खाना खिलाएं।
हां इस बात का ख्याल भी रखें सबसे ज्यादा बीमार अस्पताल में ही हैं। जहां सबको खाना खिलाते हुए आपको खुद को भी बचाना होगा।

सुनीता शानू

Saturday, April 11, 2020

दिल्ली का दिल हुआ लॉक डाउन

राजस्थान डायरी में पढिये कोरोना पर एक विशेष रिपोर्ट



दिल्ली का दिल हुआ लोक डाउन....

कोरोना के कहर ने सम्पूर्ण विश्व में त्राही मचा रखी है, एक बड़ी संख्या में लोग कोरोना से संक्रमित होते जा रहे हैं, वही विदेश से लौटे कुछ भारतियों की वजह से बड़े-बड़े शहरों में भी कोरोना ने अपने डैने फैला लिए हैं तो देश की राजधानी दिल्ली कहाँ बच पाती।

दिल्ली जो एक शहर ही नहीं है, जहाँ दुनिया के हर कोने से आकर लोग बसे हुए हैं। जहाँ हर मज़हब के लोग अपना भाग्य आजमाने चले आते हैं, जीहाँ दोस्तों वही दिल्ली जिसके दिल में हम रहते हैं। वही दिल्ली जिसने हर ज़रूरतमंद को रोटी,कपड़ा,मकान दिया है।

आज वही दिल्ली सहमी-सहमी सी खड़ी है मेरे आगे, और मै देख रही हूँ दिल्ली के दिल पर फ़ंगस लगते हुए, आज फिर दिल्ली की सड़के भूख से रो रही हैं, अस्पतालों में हाहाकार मचा है,  यह उजड़ना, बिखरना कोई पहली बार नहीं हुआ है, न जाने कितनी बार दिल्ली के दिल को रौंदा गया, तोड़ा गया, यहाँ की सड़के वीरान हुई। इतिहास गवाह है इस बात का दिल्ली ने अपने दिल पर कितने जख्म सहे हैं, न जाने कितनी बार बिखर कर संवरी है, इसके बावजूद दिल्ली ने बाहर से आने वाले हर शरणार्थी को शरण दी है, दिल से लगाया है, रोजगार दिया है। आज उसी दिल्ली के दिल में लोक डाउन की नौबत आ गई है। ऎसे ही समय के लिए शायर विजेन्द्र शर्मा फ़रमाते हैं...

दिल की चादर तंग है कहाँ पसारे पाँव

चले यार इस शहर से अपने-अपने गाँव॥

सचमुच वह बहुत काली अंधेरी रात थी जब भूख से आतंकित कई गाँव मजबूरी और बेबसी की गठरी उठाए पलायन कर गए। दिल्ली के अमीर घरों ने प्रधानमंत्री फ़ंड में पैसा जमा करवाया और चादर तान ली, यह भी नहीं सोचा कि उस पैसे की रोटी बनने में वक्त लगेगा, और बन भी गई तो कितने दिन लगेंगे भूखे पेट तक पहुंचने में... भूख कब तक बर्दाश्त होगी? कोई तो बताए?

दिल्ली के बहरे कानों ने उस लाउड्स्पीकर की आवाज़ तक नहीं सुनी जो गरीबों की बस्तियों में जाकर उन्हें बोर्डर पर पहुंचने की बोल रहा था, इतनी संगदिल तो नहीं सुनी थी मैने दिल्ली।

यह भी सच है जिन लोगों ने पलायन किया वह सुख के क्षणों के ही साथी थे, कुछ पैसा और रोटी लेकर भी पलायन कर गए। क्योंकि जिन्होने दिल्ली को दिन से अपनाया वह मजदूर एक बहुत बड़ी संख्या में भूखमरी से लड़ रहे हैं, एक बहुत बड़ी संख्या सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर और नर्स के रूप में भूखी रहकर भी लोगों को बचा रही है, एक बहुत बड़ी संख्या में आज पुलिस तैनात है जिन्होने अपनी तनख्वाह से भूखे लोगों को भोजन दिया है, यह वही पुलिस है जिन्हें बार-बार इन्हीं लोगों की पत्थरबाज़ी का सामना करना पड़ता है।

चलिए बात करते हैं पलायन की कुछ और वजहों पर भी...

सबसे बड़ा और गलत काम उन उद्योगपतियों ने किया था जिन्होनें बरसों से काम कर रहे मजदूरों को बिना एक महीने की पगार दिये, बिना कोई मदद दिये काम से निकाल दिया था। गलत काम उन मकानमालिकों ने भी किया जिन्होने जरूरत के वक्त मकान में मजदूरों को रख रखा था, और जैसे ही पता चला कि वह किराया नहीं दे पाएंगे मकान खाली करने को बोल दिया। पलायन की वजह वह घरेलू महिलाए भी हैं जो बरसों-बरस कामवालियों के काम पर टिकी हुई थी और जिन्होनें मदद के वक्त पल्ला झड़का लिया। बात तो उन रईस घरानों की भी करनी पड़ेगी जिन्होने लोक डाउन की घबर सुनते ही घर को गोदाम बना लिया और बाज़ार में जरूरी सामान की कमी हो गई। गलती कालाबाज़ारी करने वाले उन व्यापारियों की भी है जो दस रु की चीज को चार गुना कीमत में बेच रहे थे। इन सारे झंझटों से जूझते हुए जब गरीब आदमी के पास पलायन का ही विकल्प आयेगा तो वह क्या करेगा?

दूसरी खास वजह जिसने घाव पर मरहम का काम किया वह मोबाइल समझी गई, देश की एक बहुत बड़ी आबादी आज व्हाट्स एप्प और फ़ेसबुक से जुड़ी हुई है, जिनके घर में रोटी तक नहीं उनके बच्चों के पास भी पुराना टूटा-फूटा मोबाइल मिल जाएगा। और मोबाइल पर हर दूसरा तीसरा आदमी दिनभर चिपका हुआ दिखाई देता है, जो लोग कहीं नहीं आते-जाते। टीवी नहीं देखते न रेडियो सुनते हैं वह बस व्हाट्स एप्प और फ़ेसबुक की अज्ञात खबरों पर भरोसा करते हैं, उन्हें यहाँ-वहाँ फ़ैलाने का काम करते हैं। यहीं व्हाट्स एप्प पर जब सरकार की तरफ़ से गरीब लोगों के लिए खाना देने की खबर सबको मिली, तब ऎसी खबरों ने भी जोर पकड़ लिया कि अब न जाने कितने समय तक लोक डाउन में रहना होगा। इसके बाद एक मैसेज और आया कुछ लोग पैदल ही अपने गाँव लौट रहे हैं क्योंकि शहर की अपेक्षा उन्हें गाँव में रोटी मिल जायेगी,ये वही लोग थे जो रोटी की तलाश में गाँव छोड़ शहर चले आये थे। खैर इसके बाद मैसेज आया गाँव जाने के लिए सरकार ने बसों का इंतजाम कर दिया है। यहाँ तक की बस्तियों तक मुनादी भी करवा दी गई। ऎसा प्रतीत हो रहा था, कि कोई चुपके-चुपके लोकडाउन को पूरी तरह से फ़ेल कर देने पर लगा हुआ था।इसके बाद जो हुआ सबकी आँखें फ़टी रह गई, हजारो की तादात में मजदूर निकल पड़े गाँव की ओर, देखकर महसूस हुआ क्या इतने सारे लोग दिल्ली में बेघर-बेसहारा थे, क्या यह सब सिर्फ़ वोट बैंक बढ़ाने के लिए इकट्ठे किए हुए थे, भीड देख सोशल मीडिया सचमुच दहल गई, घरों में चादर तानकर सोये लोगों की नींद उड़ गई, एक बार लगा कहीं कोरोना मानव बम के रूप में गाँवों की तरफ़ तो नहीं भेजा जा रहा। भीड़ इतनी विकट थी कि उसे रोकने वाली पुलिस भी असहाय हो पिट रही थी।

पलायन की दूसरी वजह टीवी चैनल रहे, जहाँ एंकर सोशल मीडिया से उठाई खबरों को लगातार प्रसारित कर सरकारों को कोस रहे थे, भीड़ को उकसा रहे थे, यदि चैनल के पास सही खबर होती और वह सच का साथ देते तो हो सकता है कि गाँवो के भोले लोग एक दूसरे की परवाह करके दूरी बनाए रखते, कोरोना के डर से अपने लोगों के पास लौटने की सोचते ही नहीं।

यह सच है कि भूख से आदमी पहले मरता है कोरोना की अपेक्षा, लेकिन यह भी सच हमारे देश में जहाँ महापुरूषों ने महीने-महीने अनशन किया है, गाँवों में भी किसान कई बार भूमिगत अनशन पर बैठे हैं, कैसे यकीन करें कि सिर्फ़ रोटी के चक्कर में पलायन किया गया है। यह रोटी की आड़ में राजनैतिक साजिश भी हो सकती है, यह गरीब लोगों को बदनाम करने की साजिश भी लग रही है। सोचिये जरा जो महीनों तक एक वक्त का खाना खाकर भी रहा है क्या लोकडाउन के दो दिन भी नहीं निकाल पाता।

मुझे जहाँ तक लगता है यह भोले-भाले लोगों को गाँव लौट जाने का लालच दिया गया था।

कोरोना के विस्तारण में कौन शामिल है... यह बात तो हर व्यक्ति जान चुका है कि यह आपदा विदेश से आई है। लेकिन यह जानना भी उतना ही जरूरी है कि इसे फैलाने में सबसे ज्यादा किनका हाथ है। सबसे पहले नंबर पर वह लोग आते हैं जो उन दिनों विदेश से आए थे, जो जानते थे कि विदेश इस महामारी से लड़ रहे हैं इसके बावजूद वह लोग सबसे मिलते-जुलते रहे, इसके बाद वह लोग भी उनमें शामिल हैं जिन्होनें इन लोगों का साथ दिया, एकांत के डर से जाँच तक नहीं करवाई, और इसका खामियाजा संसद तक को भुगतना पड़ा।

विस्तारण में वह लोग भी शामिल हैं जो बीमारी का खुलासा होने के बाद भी पार्टी कर रहे हैं, सोशल गैदरिंग में शामिल हैं, स्थिति की भयावहता को न समझ कर जो लोग बेवजह घूमना-फ़िरना बंद नहीं कर रहे है, और कोरोना के किटाणु एक जगह से दूसरी जगह तक ला रहे हैं। एक वक्त था जब हमारे भारतवर्ष में यदि किसी को कोई बीमारी हो जाती थी वह दूर से ही सबको आगाह कर देता था कि उसके पास न आए। लेकिन आज कुछ लोग ऎसे भी हैं जिन्होने भारतीय परंपराओं को ताक पर रख दिया है, और पूरी तरह से विदेशी संस्कृति अपना ली है, इसमें हाथ मिलाने वाले, बात-बात पर गले मिलने वाले लोग है जो बाहर के जूते चप्पल पहने ही पूरे घर में घूमते रहते हैं यहाँ तक की बिस्तर तक में घुस जाते हैं, बाहर से आते ही हाथ मुँह पैर धोना हमारी पुरानी परंपरा रही है, इसके बिना माँ रोटी नहीं दिया करती थी। आज खाना टेबल पर ही लगा दिया जाता है, खुद ही निकालते जाइए खाते जाइए। इसमें किसने हाथ धोये होंगे, कौन वायरस साथ लेकर चल रहा है, कुछ नही मालूम।  बहुत जरूरी है इस वक्त हमें अपनी पुरानी संस्कृति को अपना लेना चाहिये, सबसे दूर से नमस्कार किया जाए।

सम्पूर्ण भारत में जब-जब विपदा आई है यहाँ देवी देवताओं की पूजा शुरू हो जाती है, हवन होने लगते हैं, हर बीमारी की देवी बना दी जाती है, भजन गाए जाते हैं मंदिर बन जाते हैं। लोग झाड़ फ़ूंक कर भोली जनता को लूटना शुरू कर देते हैं।  आधे लोग इसी अंधविश्वास के शिकार हो जाते हैं, और बीमार होने पर भी डॉक्टर को न दिखाकर इन पाखंडियों के पास चले जाते हैं।

सबसे बड़ी समस्या है कि हमारे देश में सफ़ाई के प्रति लोग जरा भी सतर्क नहीं है, एक तौलिये से पूरा खानदान शरीर पूछ लेता है, एक रुमाल घर भर में इस्तेमाल हो जाता है, बात-बात पर नाक में उंगली, कान में उंगली और हद तो तब हो जाती है जब मुंह में भी वही उंगली आती-जाती रहती है। सेनेटाइजर जैसी चीजे इस्तेमाल करना तो अमीरी दिखाना है ही दूसरे कई वार ऎसे भी बना दिये हैं इस दिन साबुन नहीं लगाना है, कपड़े नहीं धोना है। हाथ धोये बिना ही खाना खा लेना, रेहड़ी से कुछ भी उठा कर खा लेना। कोरोना के बढ़ने में भी यह बहुत सहायक रहा है।

दिल में ही रहना है... दोस्तों बहुत जरूरत है दिल्ली को आप सबकी मदद की। सद्भावना की सहानुभूति की। इस दिल्ली की शान बनी रहे इसके लिए बहुत से एनजियो ही नहीं आम पब्किल के लोगों ने भी अपने भंडार खोल दिए हैं, आज सबसे जरूरी यही है एक दूसरे का ख्याल रखें, कल की फ़िक्र में जमाखोरी न करें। आज की फ़िक्र में भविष्य को दाव पर न लगाएं, सरकार एक-एक के घर तक नहीं पहुंच सकती है, और फिर यह क्या जरूरी है कि हम हर काम के लिये सरकार की तरफ़ ही देखें, हमारा पहला धर्म है मानवता की रक्षा करना। कल जब दिल्ली फिर से बनेगी, संवरेगी आप अपने दोस्तों से, अपने काम करने वालों से आँख मिला पाएंगे, आपके मुँह तक रोटी पहुंचने से पहले आप कितने लोगों का पेट भर सकते हैं यह आप पर निर्भर करता है हमें दिल्ली के दिल को बचाना है। शायर नवाज़ देवबंदी ने फ़रमाया है...

गुनगुनाता जा रहा था एक फ़कीर

धूप रहती है न साया देर तक...।

सोचिए जब देश की आधी आबादी भूख से आधी बीमारियों से खत्म ही हो जाएगी तो हम अपने लिए जोड़कर इस धन का क्या करेंगे? हमें इसके दिल में रहना है तो हमें दिल्ली के दिल को बचाना ही है।

सुनीता शानू

Saturday, March 14, 2020

ये दिल्ली के मेले, कभी कम न होंगे.... -----


 

दिल्ली डायरी में जब प्रगति मैदान शामिल होने जा रहा था, तब अनायास ही डायरी के पन्नों पर लिखने-पढऩे का सबसे बड़ा मेला नजर आने लगा। इस साल के शुरुआती दिनों में यानी 4 से 12 जनवरी के बीच यहां विश्व पुस्तक मेला यानी वल्र्ड बुक फेयर का आयोजन नजर आया।
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- सुनीता शानू

दिल्ली देश का दिल है तो यहां मेल-मिलाप-मेले तो होंगे ही। दिल्ली में मेलों की रौनकें कल भी थी, आज भी हैं और लग रहा है आने वाले समय में भी यूं ही बनी रहेगी। क्योंकि, दिल्ली दिल्ली कल भी सैलानियों को आकर्षित करने के लिए जगमगाती थी, और आज भी दिल्ली में मेलों की जगमग रहती है। यूं यह कहें तो हरगिज़ गलत नहीं होगा कि दिल्ली हमेशा से व्यापारिक दृष्टि से श्रेष्ठ रही है।
अब बात आती है खरीदारी की। तो मेले में खरीदारी का शौक तो सबको ही रहता है। लेकिन दिल्ली आने वालों में एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी नजऱ आती है जो सिफऱ् खरीदारी करने के उद्देश्य से ही नहीं आते हैं। वरन अपना सामान बेचने भी आते हैं। हां,  यह भी सच है कि दिल्ली ने छोटे-बड़े सभी व्यापारियों को कारोबार दिया है। जो लोग एक बार दिल्ली आकर बस जाते हैं और यहांं से बाहर जाने का नाम भी नहीं लेते हैं। कमोबेश यही वजह है कि दिल्ली को दिल वालों की नगरी भी कहा जाता है।
अब इस दिल वालों की नगरी में आकर भी आप यदि यहां का बाजार नहीं घूम पाए तो हमेशा मलाल ही रहेगा। वैसे खरीदारी का शौक कुछ खास लोगों का तो होता ही है। परन्तु आम आदमी भी खुदरा बाजार देखते ही सुविधानुसार खरीदारी कर लेता है।
इन्हीं बाज़ारों में घूमते लोगों को देखते हुए ही शायद शायर अरशद अली खान ने कहा है,
"खऱीदारी-ए-जिंस-ए-हुस्न पर रग़बत दिलाता है।
बना है शौक़-ए-दिल दल्लाल बाज़ार-ए-मोह्ब्बत का।।
हमारा दिल जब किसी चीज पर आ जाता है तो न जेब देखता है न वक्त देखता है। बस खरीदवा कर ही दम लेता है। ऐसे में दिल्ली के इन बाज़ारों की रंगीनियां अपनी ओर खींचती है। बाजारों की बात चली तो आपको बताते चलें। दिल्ली के प्रसिद्ध बाजारों में चांदनी चौक, पालिका बाज़ार, कनॉट प्लेस, बल्ली मारान, दिल्ली हाट, प्रगति मैदान और बेगम सामरु का महल( फ़ुटकर का सामान) शुमार है। हालांकि यह कुछ बानगी भर है, लेकिन यहां आने वालों के लिए खरीददारी की दृष्टि से जरूरत का सब कुछ मिल ही जाता है।
लेकिन आज की हमारी दिल्ली डायरी जिस खास मुकाम पर  पहुंचने वाली है, वह स्थान मेलों के लिए जगप्रसिद्ध है। आप सही समझे, वह स्थान दिल्ली का प्रगति मैदान ही है।
 आम तौर पर प्रगति मैदान प्रदर्शनकारियों के लिए एक प्रदर्शनी स्थल है। यह एशिया के सर्वोत्तम प्रगति स्थलों में से एक माना जाता है। करीब 149 एकड़ में फैला एक विशाल मैदान, जिसमें 54,685 वर्ग मीटर में फैले 15 विशाल प्रदर्शनी स्थल और राष्ट्रीय विज्ञान केंद्र, द हॉल ऑफ़ नेशनल, अद्भुत हस्त शिल्प संग्रहालय एवं स्टेट्स पवेलियन, नेहरू पवेलियन एवं डिफैंस पवैलियन को अपने आप में समेटे निसंदेह प्रगति का सूचक तो है की दुनिया भर में सर्वश्रेष्ठ में शुमार होने के काबिल भी है।
प्रगति मैदान में इन सबके अलावा 10000 वर्ग मीटर का खुला क्षेत्र है। जहां भारतीय व्यापार प्रोत्साहन संस्थान समय-समय पर देशी-विदेशी व्यापार मेले आयोजित करता रहता है। ये मेले व्यापारिक एवं ओद्योगिक जगत में बहुत खासे महत्व रखने वाले और लोकप्रिय हैं। इन मेलों से टेक्नोलॉजी आदान-प्रदान के लिए एक प्रभावी माध्यम उपलब्ध होता है। इस प्रकार के मेले जनसम्पर्क का भी प्रमुख केंद्र होते हैं। प्रगति मैदान में सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं। जिसके लिए यहां दो सभागृह शकुंतलम् एवं फलकनुमा  कलाकारों और कद्रदानों के स्वागत के लिए अपनी बाहें फैलाए नजर आते हैं।
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दिल्ली डायरी में जब प्रगति मैदान शामिल होने जा रहा था, तब अनायास ही डायरी के पन्नों पर लिखने-पढऩे का सबसे बड़ा मेला नजर आने लगा। इस साल के शुरुआती दिनों में यानी 4 से 12 जनवरी के बीच यहां विश्व पुस्तक मेला यानी वल्र्ड बुक फेयर का आयोजन नजर आया।
केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन 1957 में स्थापित एक प्रकाशन विभाग राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (नेशनल बुक ट्रस्ट) ने इस मेले का आयोजन किया। वैेसे भी नेशनल बुक ट्रस्ट के मुख्य कामों में प्रकाशन, 2) पुस्तक पठन को प्रोत्साहन, विदेशों में भारतीय पुस्तकों को प्रोत्साहन, लेखकों और प्रकाशकों को सहायता, बाल साहित्य को बढावा देना और विभिन्न श्रेणियों के अन्तर्गत हिंदी, अंग्रेजी तथा अन्य प्रमुख भारतीय भाषाओं एवं ब्रेल लिपि में पुस्तकें प्रकाशित करना है। हर साल लगने वाले यह बुक फेयर एशिया और अफ्रीका का सबसे बड़ा पुस्तक मेला तो ही है। मेला खत्म होते ही पुस्तक प्रकाशकों-प्रेमियों को अगले साल का बेसब्री से इंतजार शुरू हो जाता है।
 प्रगति मैदान मैट्रो की ब्लू लाइन से जुड़ा हुआ है। मेट्रो से यहां पहुंचना सुगम है।क्योंकि प्रगति मैदान एक मैट्रो स्टेशन का नाम है। हालांकि इस जनवरी माह से इसका नाम सुप्रीम कोर्ट मैट्रो स्टेशन बदल दिया गया है। अब इसी स्टेशन पर उतर कर प्रगति मैदान पहुंचा जा सकेगा। इस बार मेले में पहुंचने का समय प्रतिदिन 11 बजे से रात 8.00 बजे तक था और प्रवेश टिकिट वयस्कों के लिए 30 रुपए, बच्चों के लिए 20 रुपये रखा गया। स्कूल यूनीफ़ॉर्म में आने वाले बच्चों, वरिष्ठ नागरिकों और दिव्यागों के लिए प्रवेश निशुल्क था। मेले में प्रवेश सिफऱ् गेट नम्बर 1 तथा गेट नम्बर 10 से ही किया जा सकता है। टिकिट खिडक़ी भी गेट नम्बर 1 व 10 पर ही उपलब्ध थी। भैरों मार्ग प्रगति मैदान पर पार्किंग की व्यवस्था भी है। नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा गाड़ी की व्यवस्था भी की गई है, जो सभी पुस्तक प्रेमियों को गेट से मेले तक श््राटल बस के रूप में सचालित की गई।
पुस्तक मेले की खासियत और जुनून वरिष्ठ पत्रकार विनोद कुमार गौड़ के शब्दों में सुनिए-‘जो एक बार यहां विजिट कर गया, अगले सालों में उसे यहां आना ही पड़ेगा।’ वे आगे बताते हैं- ‘यह सच है कि पुस्तक मेला साहित्य प्रेमियों का एक ऐसा त्योहार है, जिसकी तैयारी में वर्ष भर लेखक, प्रकाशक के साथ-साथ पाठक भी लगे होते हैं। सभी को साल भर तक इस मेले का इंतजार रहता है। और इंतजार किया जाता है दूर से आने वाले दोस्तों का, पुस्तक मेले में जितनी खुशी पुराने दोस्तों से मिलकर होती है, उतनी ही खुशी अजनबी और नए लोगों से दोस्ती होने पर होती है। ये मेले दोस्तों से मिलने का माध्यम भी रहते हैं।’
इसीलिए तो मीर हसन फऱमाते हैं -
"फिरते हैं हम तो तेरे ही दर पे कुछ
रस्ते से है न काम न बाज़ार से गऱज़।
दरअसल, पुस्तक मेले का मुख्य उद्देश्य लोगों में पुस्तकों के प्रति रुचि पैदा करना है। तथा इसका एक लाभ यह भी है कि पाठकों को एक ही स्थान पर हर विषय की पुस्तकें मिल ही जाती है, वहीं प्रकाशकों को भी अपनी पुस्तकों का प्रदर्शन करने के लिए मंच उपलब्ध हो जाता है। पुस्तक मेलों में होने वाली गोष्ठियों और चर्चाओं से भी पाठकों और नए लेखकों को सीखने को मिलता है।
अब नवीन चौधरी को ही लीजिए। छात्रजीवन, छात्र राजनीति से लेकर जातिवादी राजनीति के दांवपेंचों को समेटे उपन्यास ‘जनता स्टोर’ के लेखक नवीन बुक फेयर के अधिकांश दिनों में मौजूद रहे। उन्होंने अपने पाठकों-सोशल मीडिया के माध्यम से बने मित्रों से गर्मजोशी से मुलाकात की, किताब पर ऑटोग्राफ दिए। उनका कहना था कि लेखकों के लिए मार्केटिंग का अवसर तो है ही, साथ ही अपने पाठकों से रूबरू मिलने का मौका भी। उन्होंने बुक फेयर में आए अपने मित्रों, पाठकों को निराश नहीं किया और भरपूर ऊर्जा से मिले, सेल्फी ली।
पुस्तक मेले में भूगोल, इतिहास,विज्ञान,साहित्य,यात्रा,भाषा, संस्मरण, लोककथाएं, मनोरंजन, स्वास्थय, सिनेमा, धर्म आदि विषयों पर पुस्तकें मिल जाती हैं। नए लेखकों की किताबों का जब विमोचन व किताब पर चर्चा होती है तो वह भी चर्चा में आते हैं, तथा किताबों का प्रचार भी होता है। नि: संदेह पुस्तकें ही हमारी सबसे अच्छी मित्र होती हैं। जो हमारा मार्ग प्रशस्त करती हैं और हमें मार्गदर्शन देती हैं। पुस्तकों से हमें ज्ञान प्राप्त होता है। वेद, पुराण, उपनिषद,गीता,रामायण  का अध्ययन करके हमें प्राचीन संस्कृति का ज्ञान तो होता ही है, साथ ही उन महान लोगों के जीवन चरित्र को सालों साल सहेज कर रखना पुस्तकों के माध्यम से ही हो पाया है।
इस साल 4 जनवरी 2020 को प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेले का उद्घाटन केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक के ने किया। इस बार मेले की थीम ‘गांधी लेखकों के लेखक थी। इस थीम को ध्यान में रखकर एक विशेष मंडप भी पुस्तक मेले में लगाया गया, जिसमें गांधी जी के व्यक्तित्व व कृतित्व को लेकर अलग-अलग भाषाओं में 500 से अधिक किताबों की प्रदर्शनी की गई। पुस्तक मेले में 600 से ज्यादा प्रकाशकों ने 1300 स्टालों के जरिए पुस्तकों का प्रदर्शन किया।
लेखक मंच भी पुस्तकों के विमोचनों और लेखकों से बातचीत का एक केंद्र नजर आ रहा था। बाहर से आने वालों के लिए तथा दिन भर मेले में रहने वालों के लिए, मेले में खाने पीने सम्बंधी सुविधाएं भी रखी गई है, ताकि दिन भर मेले में घूमने पर आप कुछ देर सुस्ता कर चाय कॉफ़ी भी पी सकते हैं।
चारों तरफ़ किताबें ही किताबें, और बड़े-बड़े झोले उठाये पाठक वर्ग नजऱ आ रहा था। कुछ प्रकाशकों ने स्टॉल के कोने में लेखकों के बैठने तथा लोकार्पण व चर्चा के लिए स्थान बना रखा था। फूलों की खुशबू और मिठाई के डिब्बों के साथ जैसे ही किसी पुस्तक का लोकार्पण होता, सबके चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ जाती। तालियों की  गडग़ड़ाहट के साथ ही वरिष्ठ लेखकों व प्रशंसकों द्वारा पुस्तक पर विचार व्यक्त करते नजर आए।
मेले में वरिष्ठ लेखकों की एक अपनी ही जमात दिखाई देती है। मेले में ऐसे वरिष्ठ लेखक भी नजऱ आ जाते हैं जिनके दर्शन भी दुर्लभ होते हैं या जो चलने फिरने में असमर्थ होते हैं। यहां आने वाले लेखक तथा पाठक जरूरी नहीं किताब खरीदने या विमोचन करने ही आते हैं। पुस्तक मेला सच पूछिए तो वर्षों से बिछड़े दोस्तों के मिलने का माध्यम भी होता है। चारों तरफ़ एक दूसरे के चेहरे देखते लेखक पाठक इस तरह घूम रहे होते हैं, जैसे कुंभ के मेले में किसी अपने की तलाश में हों।
इन सबके बीच एक और खतरे की तरफ़ भी ध्यान गया।प्रगति मैदान में प्रगति की ओर बढ़ते इन नए लेखको के कदम अनायास ही एक ऐसी दिशा की ओर उठ रहे हैं, जहां से अगर निराशा मिली तो उनकी भावनात्मक कविता के बिगड़ जाने का खतरा रहता है। एक कवि मित्र अपने सभी मित्रों से एक ही बात कह रही थी, देखिए-कैसे सौभाग्य की बात है, आज आप आए और आज ही मेरी पुस्तक मेले में आई है। तमाम दोस्त अपनी दोस्त का मुस्कुराता चेहरा देखते और तुरंत उनका हाथ अपनी जेब की ओर बढ़ जाता। और मिल जाती लेखिका की हस्ताक्षरित एक कॉपी। कौन पागल होगा जो अपने दोस्त की क्लॉज अप सी मुस्कुराहट को खोना चाहेगा। तमाम नए लेखक जो अपने किताब रूपी सपने को हाट बाज़ार में सब्जी-भाजी की तरह बेचने को आतुर थे। अपने इष्ट मित्रों को हांक भी लगा रहे थे।
अब यह सचमुच सोचने वाली ही बात है क्या हमें प्रगति मैदान का ये मेला प्रगति की ओर ही ले जा रहा है। जहां अंधाधुंध दौड़ते जा रहे हैं अपनी भावनाओं की किताब पर कल्पनाओं की स्याही से उकेरे कुछ स्वप्न दोस्तों में बेचने।
आखिर में एक बात और। मेले में एक दुनिया सपने बेच रही है, फुटपाथ पर भी... जहां तमाम बड़े छोटे लेखकों की किताबे उपलब्ध है। वहीं पर प्रगति की राह में आगे बढ़ाता एक बोर्ड लगा है किताबें सौ रुपये किलो। सचमुच यह भी सोचनीय है।

Wednesday, February 5, 2020

कथा "मीराँबाई पर विशेष"



कभी-कभी कुछ चीज़े विशेष होती हैं, और आपसे लिखवाकर ही दम लेती हैं, ज़िक्र होना भी चाहिए, किसी भी रचना को लिखने के बाद, या पुस्तक के प्रकाशन के बाद उस पर पाठक का हक़ हो जाता है, अतः उसी पाठकीय धर्म को निभाते हुए मै आपको एक ऎसे विशेषांक से रु-ब-रु करवाने जा रही हूँ जिसका सम्पादन करना आसान तो कतई नहीं था, अपितु नए विवादों को खड़ा भी कर सकता था, विशेषांक को पढ़कर आप संपादक की सजगता और  कार्यकुशलता का अंदाजा लगा सकते हैं।

तो मै आपको बताना चाहूँगी कि आज मैने कथा पत्रिका का मीराँबाई विशेषांक पढा, यह मार्कण्डेय जी के देहावसान के बाद वर्ष 2012 में प्रकाशित हुआ था, इस अंक का सम्पादन डॉ अनुज के द्वारा हुआ था।
यदि आप इस अंक को पढ़ेंगे तो समझ पाएंगे मीराँ बाई पर लिखा गया यह एक दुर्लभ अंक हैं इसमें  30 लेखकों के लेख भी शामिल है, जो मैं धीरे-धीरे पढूंगी। अभी मैंने सबसे पहले सम्पादकीय और यात्रा संस्मरण पढ़ा। जिससे यह पता चला कि इस अंक को निकालने के लिए अनुज को कितनी सारी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। डॉ अनुज ने मीराँबाई अंक को निकालने के लिए खुद यात्राएं की, उन यात्राओं में मीराँबाई से संबंधित हर सामग्री एकत्र की, लोगों से मुलाक़ातें की, लेखक ने मीराँबाई पर लिखने से पहले जिस तरह से दर-दर भटककर मीराँ को समझने की कोशिश की है, मीराँ की हर पीड़ा को आत्मसात किया है उससे इस अंक की गुणवत्ता का सीधे-सीधे पता लगता है।

इंटरनेट के समय में जबकि सब कुछ आसानी से उपलब्ध हो जाता है, कितने संपादक हैं ऐसे जो किसी भी पत्रिका को निकालने के लिए पूरी तरह ईमानदार रहते हैं, यह सच है कोई भी पत्रिका हो या अखबार उसकी गुणवत्ता का पता संपादक की ईमानदारी पर निर्भर करता है। यदि पुराने तथ्यों के आधार पर मीराँबाई विशेषांक निकाला जाता तो मुझे नहीं लगता कि यह इतना विशेष बन पाता।

लेखक ने यात्रा संस्मरण में मीराँबाई के जन्मस्थल से लेकर अंतिम पड़ाव तक तथ्यों की खोज की। अब तक ना जाने कितने लोग मीराँबाई को भक्ति काल की एक कवयित्री ही मानते रहे होंगे। लेकिन आप इस विशेषांक को पढ़ेंगे तो समझ पाएंगे मीराँबाई एक कवयित्री ही नहीं एक समाज सुधारक, एक विद्रोही स्वर थी। वह जानती थी कि सीधे-सीधे किसी भी सामाजिक प्रथा का विरोध करना मुश्किल होगा, अशिक्षित व धर्मांध जनता ऊंच-नीच के फेर से निकल नहीं पाएगी,  सबको एक ही जगह एकत्र करने का एक मात्र तरीका कृष्ण भक्ति ही थी। अतः मीराँबाई ने बहुत सोच समझ कर भक्ति मार्ग को चुना था।

 डॉ अनुज ने अपनी बात में पाठकों के सामने कई सवाल रख छोड़े हैं, यदि मीरा बस एक भक्त ही होती तो उसे राजमहल छोड़ना क्यूं पड़ता, मीरा को मारना तो बहुत आसान होता, तो क्यों सांप या ज़हर के द्वारा खत्म करने की साज़िश की गई।
आपने यह भी सुना होगा कि मीराँ अंत में कृष्ण में लीन हो गई थी। लेख में इस बात को भी पूरी तरह से नकारते हुए लिखा है कि मीराँ की बढ़ती हुई लोकप्रियता से घबराकर ही सत्ता ने उनकी हत्या करवाई होगी, और उनका शरीर भी गायब कर ऐसी कहानी बना दी गई होगी, जिससे धर्मभीरू जनता में राजसत्ता के विरुद्ध विद्रोह न भड़के।
यह अंक सचमुच पाठक को सोचने के लिए विवश कर देता है, भाषा की सरलता पठनीयता को बनाए रखती है और अंत तक मीराँबाई को जानने समझने की उत्सुकता बनी रहती है।
मीराँबाई विशेषांक आपको भी पढ़ना चाहिए और मीराँ के जीवनकाल के पन्नों को एक बार फिर पलटना और समझना चाहिए। ताकि मीराँबाई सिर्फ पदों और भजनों में न रह जाए, समाज के लिए दिया गया उनका बलिदान आने वाली पीढ़ियां भी जरूर समझ पाएं। इस विशेषांक के लिए सम्पादक को बहुत-बहुत बधाई। आशा है इस तरह की सामग्री को किताब के रूप में रखा जाए ताकि पाठ्यक्रम में भी उपयोग हो और आने वाली पीढ़ी को सच्चाई से अवगत कराया जा सके।
लिखना अभी और भी है बाकि फिर कभी...

सुनीता शानू


Sunday, December 1, 2019

दोस्ती जब भी कीजिए...




दोस्ती जब भी किसी से की जाए, पहले जांच परख ली जाए, जांच लिया जाए कि आपने जिससे दोस्ती की है उसे आप पर भरोसा है भी कि नहीं, यह भी देख लिया जाए कि वह आपकी निस्वार्थ दोस्ती को आपकी मतलबपरस्ती तो नहीं मान बैठेगा, आपको जानना पड़ेगा आपके दोस्त के दोस्त कैसे हैं, इंसान किसी की न सुनता हो मगर हर वक्त कान के पास आने वाली आवाजें दिमाग में घर बना लिया करती हैं।
आपको देखना होगा मौकापरस्त  दोस्तो की दोस्त को पहचान है भी की नहीं ? और कहीं वह कान का कच्चा हुआ तो ऐसे में दोस्ती कभी भी टूट सकती है, यदि आप सचमुच किसी को दोस्त मानते हैं, और उसका हित चाहते हैं, तो चुपचाप ऐसे लोगों से किनारा कर लेना चाहिए, दोस्ती हमेशा एक दिल, एक दिमाग़ और एक ही सोच वाले लोगों के साथ निभ पाती है...
किसी ने सच ही कहा है 

 "A best friend is that who knows all about you and still loves you." 


यदि आप सोचते हैं मेरा दोस्त कभी मेरे लिए ग़लत सोच ही नहीं सकता, आंखें ग़लत देख सकती हैं, कान ग़लत सुन सकते हैं, लेकिन मेरा दिल यह जानता है कि वह मेरा बुरा सोच ही नहीं सकता।तो यकीन मानिये आपने एक अच्छा दोस्त पा ही लिया है। यदि इतना भरोसा है तो दोस्ती क़ायम है वरना आपके आगे पीछे कुकुरमुत्तों की फौज इकठ्ठी है जो कभी भी कान से बहरा, आंख से अंधा बनाए रख सकती है। लोग कभी भी दो लोगों की दोस्ती बर्दाश्त नहीं कर पाते, और तिल का ताड़ बनाते हैं, जो जिंदा है उसकी ख़बर कोई नहीं रखता, लेकिन गड़े मुर्दे उखाड़ने में सर खपाते हैं...।
 तो जिंदगी के चार पल सुकून से जिए जा सकें, इसके लिए राहत इंदौरी साहब ने कहा है...

 दोस्ती जब किसी से की जाए
दुश्मनों की भी राय ली जाए

सुनीता शानू

Tuesday, September 10, 2019

दिल्ली वाले दिल हार आए... उज्जैन यात्रा






कालों के काल महाकाल की नगरी उज्जैन जाने का अवसर मिला। यूं तो ज्ज्जैन के कई नाम हैं मुख्यरूप से उज्जैन को उज्जयिनी के नाम से पुकारते हैं। उज्जैन आज भी भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर को बचाए हुए हैं, यहाँ लगने वाला कुम्भ का मेला जग प्रसिध्द है। इसे सिंहस्थ महापर्व के नाम से जाना जाता है। उज्जैन नगरी को अच्छी तरह से देखने समझने के लिए एक महीना भी कम है, लेकिन मेरे पास तो सिर्फ़ दो ही दिन थे,इन दो दिन में उज्जैन घूम पाना नामुमकिन था, कारण एक और भी था, वह था उज्जैन जाने का मकसद। मुझे उज्जैन में चल रहे पुस्तक मेले का निमन्त्रण मिला राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत की तरफ़ से, यह मेरे लिए एक खुशी की बात थी, कि मुझे महाकाल की नगरी में जाकर व्यंग्य पाठ करना था,  लेकिन दो दिन का जाना भी मेरे रोमांच को कम नहीं कर पाया था...

 शुक्रवार का दिन था, मालवा सुपरफ़ास्ट  कुछ ज्यादा ही फ़ास्ट थी, सब दोस्तों ने आगाह किया कि समय पर पहुंचना मुश्किल होगा, मालवा दस से बारह घंटे तक लेट हो जाती है, खैर वही तो होगा जो ईश्वर को मंजूर होगा,मेरी भोपाल में रह रहे मित्र आनंदकृष्ण  से बात हुई, आनंद ने कहा मै हर हाल में तुम्हे भोपाल स्टेशन पर मिलूंगा, आनंद का जन्म दिन भी था तो सोचा एक साथ दो काम होंगे, लेट होते-होते करीब सुबह के साढे नौ बजे ट्रेन भोपाल जंकशन पहुंची, मै ट्रेन से नीचे उतर आनंद का इंतजार करने लगी, तकरीबन बीस मिनिट ही बीते होंगे ट्रेन के सायरन की आवाज आने लगी, साथ ही आनंद का फोन कि तुम कहाँ हो, मै स्टेशन पहुंच गया हूँ, मै चारों तरफ़ देख रही थी दोस्त को एक झलक भी देख पाती, कि ट्रेन चल पड़ी, मै जल्दी से ट्रेन में चढ़ गई, आनंद दूर खड़ा जाती हुई ट्रेन को देख रहा था, और हाथ में पकड़े था नाश्ते का डिब्बा। हम भारतीय भी न इन्ही सब उलझनों में उलझे रहते हैं उसने खाना खाया कि नहीं, उसने पानी पिया की नहीं, भूल जाते हैं दोस्त से मिलकर भूख-प्यास जैसी चीज़े महसूस नहीं होती।

खैर मेरी ट्रेन भोपाल से रवाना हो चुकी थी और अब बारी थी उज्जैन जंक्शन की, न्यास प्रभारी हिंदी संपादक डॉ ललित किशोर मंडोरा हर थोड़ी देर के बाद पता कर रहे थे ट्रेन कहाँ तक पहुंची, मेरे बार-बार यह कहने पर कि  मै खुद पहुंच जाऊंगी, उन्होने कहा कि यह उनका कर्तव्य है आपको लेने गाड़ी आयेगी। हुआ भी वही स्टेशन पर ठीक समय गाड़ी आई और मै पहुंची शिप्रा रेजिडेंसी...

शिप्रा रेजिडेंसी मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग के अंतर्गत आता है, जो स्टेशन जाने वाली सड़क पर ही बना है, इसमें सभी साहित्यकारों के रुकने की व्यवस्था थी, होटल साफ-सुथरा और खूबसूरत था, खाना भी बेहद लजीज था, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की तरफ़ से हमेशा से ही साहित्यकारों के स्वागत में कोई कमी नहीं रखी जाती है।

स्वागत में  ललित किशोर मंडोरा तथा व्यंग्य महारथी अरविंद तिवारी जी के साथ चाय पानी लिया गया, कुछ देर आराम किया गया,  शाम पाँच बजे पुस्तक मेले में अरविंद तिवारी जी तथा मुझे लेकर  गाड़ी पुस्तक मेले के लिए निकली। उज्जैन की साफ़-सुथरी सड़को को देखकर बहुत अच्छा लगा, धार्मिक स्थल होने के बावजूद कहीं कोई गंदगी नजर नहीं आ रही थी।

होटल से कुछ ही दूरी पर कालिदास संस्कृत अकादमी परिसर में पुस्तक मेला लगा हुआ था। जैसे ही भीतर प्रवेश किया चारों तरफ़ किताबों की खुशबू बटोरते लेखक, पाठक नज़र आए, मन खुशी से भर गया, चेहरे पर खुशी अपने-आप आ गई, जैसे एक ही बिरादरी के लोग अपने लोगों को देखकर खुश हो जाते हैं, मेरी नजरे उन अनजान लोगों में कोई जाना-पहचाना सा चेहरा ढूँढने लगी, प्रकाशन स्टॉल जरूर जाने पहचाने से थे, लेकिन प्रकाशक कम ही पहचाने जा रहे थे, फिर भी खुशी लिपटी रही कि एक बिरादरी के तो हैं ही ...
थोड़ा और चलते ही लेखक मंच नजर आया, कुछ जाने-पहचाने से चेहरे थे, तो कुछ अपनेपन का अहसास दिला रहे थे, स्वागत पिलकेंद्र अरोरा जी ने किया, एक बेहद मिलनसार और हंसमुख व्यक्तित्व, पास ही छुपे-छुपे, सहमे-सहमे से खड़े थे हरीश जी, मुझे लगा शायद ये कोई और हैं, वह भी शायद मुझे पहचान नहीं पा रहे थे, कुछ ही देर में सबको मंच पर बुलाया गया तब पता चला यह तो हरीश सिंह ही है मेरे पुराने मित्र। अब व्यंग्य का सत्र शुरु हुआ तो सबकी हालत देखने लायक थी, आठ व्यंग्यकार मंच पर थे, और सामने बैठे निरीह श्रोतागण, देखकर लग रहा था कब कौनसा बाण किधर से चलेगा यह अनुमान लगाने की कोशिश कर रहे हैं, मुझे लगता है जनता व्यंग्यकारों को कोई अच्छा प्राणी नहीं समझती है, हाँ समझ भी ले यदि व्यंग्यकार कुछ हॉस्य में लिपटी हुई रचनाए सुना दे... जैसे की पिलकेंद्र अरोरा जी का संचालन था, देखकर उनके मंजे होने का पूरा विश्वास हो गया था।

कार्यक्रम की शुरूआत में इंदौर आये सौरभ जैन के व्यंग्य से की गई थी। सौरभ उम्र में छोटे जरूर हैं मगर उन्होनें व्यंग्यकारों ही नहीं कवियों के मंच की चकाचौंध पर भी तीर चला दिए, इसके बाद आये दिनेश दिग्गज जिन्होनें अपने हंसमुख अंदाज में कुछ छोटे-छोटे व्यंग्य सुनाकर श्रोताओ को आकर्षित किया, अभी श्रोताओं में चहल-पहल हो ही रही थी कि उज्जैन के ही व्यंग्यकार हरीश सिंह जी ने को व्यंग्यपाठ के लिए आमंत्रित किया गया, हरीश जी ने नजरों पर एक बेहद शानदार व्यंग्य सुनाया, अब भला किसकी नजर किस पर है, कौन किसकी नज़र में है यह एक व्यंग्यकार से कैसे बच सकता था, सो सबकी नज़रों के कारनामें खोल कर खूब तालिया बटोरी हरीश जी ने,इसके बाद मुकेश जोशी जी ने हिन्दी पखवाड़े पर करारा वार किया, अभी श्रोता संभल भी नहीं पाए थे कि पिलकेंद्र जी ने मंच पर आसीन इकलौती व्यंग्यकार यानि की मुझे व्यंग्य सुनाने के लिये आमंन्त्रित किया, मै बहुत देर से देख रही थी, श्रोताओं की भीड हो या मंच पर बैठे व्यंग्यकार मोबाइल से दूर हो ही नहीं पा रहे थे, यदि मै दस तक गिनती करूं तो दस में से चार बार मोवाइल पर कोई मैसेज चमकता था, और सुनना छोड़ आंखें मैसेज पढ़ने में लग जाती थी, कुछ तो ऎसे भी थे जो बार-बार यह चेक कर रहे थे, मोबाइल की न लाइट जली न घंटी बजी, कुशल तो है न... खैर मैने मोबाइल की पीड़ा से लिपटी रचना सुना डाली, अब यह किसी को सहन कैसे हो पाती, भला ऎसे व्यंग्यबाण आजकल के बच्चे तो सह ही नहीं पाते, खैर चुनाव भी आने ही वाले हैं और हम ठहरे दिल्ली से तो सोचा फिर कब आना होगा उज्जैन तो एक रचना और सुना ही देते हैं, संचालक की आज्ञा लेकर चुनावी गालियों की आँनलाइन शॉपिंग करवा डाली, मेरे खयाल से सबने गालियों की सुविधानुसार ऑनलाइन बुकिंग भी कर ही दी होगी।  मेरे बाद आये ललित किशोर मंडोरा उर्फ़ लालित्य ललित उन्होने आते ही विलायती राम पांडेय और उनके सारे किरदारों के साथ ऎसा समा बाँधा कि उज्जैन के लोग अभी तक उसी देविका गजोधर को ही ढूँढ रहे होंगें। मंच का संचालन कर रहे पिलकेंद्र अरोरा का जब नंबर आया तो सबकी निगाह उनकी तरफ़ थी, उन्होनें काव्यात्मक लहजे में व्यंग्य की शुरूआत की आह बाबा वाह बाबा... सुनकर सबको बहुत मजा आया, ये एक ऎसा व्यंग्य था जो हंसी-हंसी में बाबाओं की जीवन शैली पर, बाबाओं के गलत तरीको पर प्रहार कर गया, और उनसे बचने की सलाह भी दे गया... अब अंतिम वक्ता के रूप में वरिष्ठ व्यंग्यकार अरविंद तिवारी जी को बुलाया गया। अरविंद जी का व्यंग्य पढ़ने का अलग ही अंदाज़ था, उन्होने विश्व पुस्तक मेले पर अपनी रचना सुनाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। व्यंग्य पाठ का दिन सचमुच यादगार रहा।
वापस आते वक्त हल्की सी बूंदा बांदी शुरू हो गई... हम सब लौटकर होटल आ गए, रात्रि भोजन किया और विश्राम किया गया।

रात ही संजय जोशी भैया का फोन आया कि वह सुबह मुझसे मिलने आ रहे हैं, सुनकर बहुत अच्छा लगा, कि कोई रतलाम से चलकर आपसे मिलने आ रहा है। सुबह मै जल्दी ही उठ जाती हूँ, संजय भैया सुबह साढे सात बजे रतलामी सेव के साथ होटल पहुंच गए, उनके स्वागत में ललित जी ने चाय नाश्ते का प्रबंध किया, खूब बातें की मैने अपनी किताबें संजय भैया को भेंट की, अरविंद जी ने भी अपनी किताब भेंट की, उन्होनें हम तीनों को रतलामी सेव भेंट की। साथ ही हमने फोटो भी खींच ली,  संजय भैया एक अच्छे लेखक ही नहीं सचमुच एक सरल हृदय रचनाकार भी हैं, उनसे मिलकर बहुत अच्छा लगा। महसूस ही नहीं हुआ कि यह हमारी पहली मुलाकात थी।

संजय भैया को विदा करके हम सभी व्यंग्यकार पिलकेंद्र अरोरा जी के आतिथ्य में हाजिर हुए, पिलकेंद्र अरोरा और उनकी धर्मपत्नी का अतिथि सत्कार सचमुच भावविहल करने वाला था, जलेबी, पोहा, ढोकला, पकौड़े और चाय के साथ सबने व्यंग्य सुनाए, कविताएं सुनी, समय कैसे बीता पता ही नहीं चला। आसमान का बरसना तो कम नहीं हुआ, लेकिन हमें उठना पड़ा।

ललित जी को होटल छोड़ कर मै और अरविंद जी हरीश जी की गाड़ी में घूमने निकल गए, हरीश जी जितने अच्छे व्यंग्यकार हैं उतने अच्छे मित्र भी हैं, पूरे शहर की परिक्रमा करते हुए हम मंदिर और गुरुद्वारे के दर्शन करते रहे, हरीश जी बोलते हुए, सड़क और मंदिरों का परिचय देते रहे, बीच-बीच में अरविंद जी अपने अनुभव बताते रहे... माँ हर सिध्दी देवी मंदिर तथा गढ़कालिका माता मंदिर के दर्शन करने के बाद कुछ तस्वीरे शिप्रा नदी के घाट की भी खींच ली, इतने में ललित जी का फोन आ गया, आप तैयार रहें शाम को आप सबको लेने गाड़ी आयेगी, पांच बजे से काव्यपाठ का आयोजन है। बरसात बढ़ती जा रही थी, अरविंद जी रास्ते में ही एक होटल पर रुक गए, और हरीश जी ने मुझे होटल छोड़ दिया।  

शाम का वक्त था, बारिश ने उज्जैन में रैड अलर्ट कर दिया था, हम पुस्तक मेले पहुंचे तो देखा न लेखको की संख्या में फ़र्क था, न ही पाठकों की संख्या में, बल्कि आज पहले की अपेक्षा अधिक भीड़ थी, और महिलाओं की संख्या बहुत अधिक थी, बाद में पता चला कि यह सब तो इंदौर और उज्जैन नगरी से आई कवियित्रियाँ हैं जो काव्यपाठ के लिए आई थी, और साथ में थे उनके पति बच्चे, सास-ससुर, माता-पिता, बहन-बहनोई, अड़ौसी-पड़ौसी... यूं कहें तो गलत नहीं होगा कि आज मंच पर भी भीड थी तो श्रोता भी भारी संख्या में रहे... सभी ने एक से बढ़कर एक ,कविता, गीत, तथा ग़ज़ल सुनाई, चित्रा जी का संचालन भी गजब रहा,शुरुआत हुई सुषमा व्यास जी की सरस्वति वंदना के द्वारा, इसके बाद अदिति भदौरिया ने पिता पर बेहद संवेदनशील कविता सुनाई, प्रेम शीला जी ने मुक्तको से समा बाँध दिया, क्षमा सिसोदिया की ग़ज़ल और पुष्पा चौरसिया जी की काविता मन संयासी हो जाता है सुनकर श्रोताओं ने खूब तालियां बजाई,सुषमा व्यास ने कविता के अलग ही रंग दिखाए, कभी वह शब्दों को चाँद तक ले गई तो कभी माँ के पल्लू में रुपया अट्ठन्नी चवन्नी के रूप में बाँध आई, सीमा जोशी जी के गीतों के साथ सभागार में सभी गुनगुनाने लगे, बेहद सुरीली मीठी आवाज में उन्होने मालवी गीत भी सुनाया, जो मुझे समझ नहीं आया लेकिन स्थानीय लोगों ने खूब प्रशंसा की। इसके बाद डॉ पांखुरी जोशी की धारदार कविताएं किसी व्यंग्य से कम नहीं थी, इसके बाद चित्रा जैन ने  बेहद खूबसूरत कविता सुनाई जीना चाहता हूँ, चित्रा जी के बाद वंदना गुप्ता जी की कविता की भी सराहना हुई और अंत में नंबर आया मेरा, मुझे विशिष्ट अतिथि के रूप में बिठा दिया गया था, मैने भी दो गीतों का पाठ किया, और दिल वालों की नगरी दिल्ली की तरफ़ से उज्जयनी को संदेश दिया कि वस्तुतः दिल वाले तो महाकाल की नगरी उज्जैन में ही रहते हैं।

कार्यक्रम के अंत में सभी रचनाकारों ने न्यास तथा ललित किशोर मंडोरा का आभार व्यंक्त किया, इस मौके पर उन्हे शॉल उढाई और मोतियों की माला पहनाई गई। सभी की आँखें नम थी, करीब तीस सैंकिंड तक सबने करतल ध्वनि में अपना प्रेम प्रदर्शित किया। कुल मिलाकर उज्जैन पुस्तक मेला एक यादगार अमिट छाप छोड़ गया है, वहाँ हम दिल्ली वाले सचमुच दिल हार कर आ गए...।

सुनीता शानू


Saturday, August 11, 2018

कोमल बचपन पर कठोर होती दुनिया...








कोमल बचपन पर कठोर होती दुनिया...

हर 8 वें मिनिट में एक बच्चा गायब हो रहा है...नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) का यह आँकड़ा हमें डराता है, सावधान करता है और यह सोचने पर मजबूर करता है कि हम अपने बच्चों का ख्याल रखने में नाकामयाब रहे हैं। 
हमारे लिये यह बेहद शर्मनाक बात है कि देश का भविष्य कहे जाने वाले बच्चों का भविष्य हम सुरक्षित नहीं रख पाते हैं। एन सी आर बी की रिपोर्ट बताती है कि गायब होने वाले बच्चों मे 55 फीसदी लड़कियां होती हैं और सबसे डरावनी और खौफ़नाक बात यह है कि 45 फीसदी बच्चों का कुछ पता नहीं चल पाता। इन बच्चों के साथ क्या होता है मार दिये जाते हैं या ज़िंदगी भर के लिये किसी ऎसी जगह बेच दिये जाते हैं जहाँ से इनका कोई सुराग नहीं मिल पाता।
लापता होने वाले बच्चों में ज्यादातर झुग्गी-बस्तियों, विस्थापितों, रोजगार की तलाश में दूर-दराज के गाँवों से शहरों में आ बसे परिवारों, छोटे कस्बों और गरीब व कमजोर तबकों के बच्चे होते हैं। ऎसे बच्चों को गायब करना बेहद आसान होता है। कुछ माता-पिता अशिक्षित होते हैं जिन्हें मूर्ख बना कर या लालच देकर मानव तस्करी के गिरोह बच्चे गायब कर देते हैं। शर्मिंदगी उन माता-पिता को देखकर होती है, जो गरीबी और पैसे के लालच में अपने मासूम बच्चों को  बेच देंतें हैं।
जहाँ एक और बचपन बचाओ आंदोलन किये जा रहे हैं, दूसरी तरफ़  बाल श्रमिकों  की संख्या में दिनों-दिन इजाफ़ा हो रहा है। (ILO) अंतर्राष्ट्रीय  श्रम संगठन के मुताबिक दुनियाभर में लगभग बीस करोड़ बच्चे अपनी उम्र से ज्यादा श्रम वाला काम करते हैं और यह जानकर आश्चर्य होता है कि 14 साल से कम उम्र के सबसे ज्यादा बाल श्रमिक हमारे देश भारत में ही हैं।
आये दिन बच्चा उठाने वाले गिरोह पकड़े  जा रहे है फ़िर भी बच्चों के गायब होने का सिलसिला बड़ता ही जा रहा है। लगभग 900 संगठित गिरोह ऎसे हैं जो बच्चों को यौन व्यापार में धकेलने तथा बंधुआ मजदूरी के लिए मजबूर करने का काम करते है। बच्चों के अंग-भंग कर उनसे भीख मंगवाते है,  अपहृत बच्चों के अंगों को प्रत्यारोपण के लिए निकालने के बाद उन्हें अपने हाल पर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। यूनिसेफ की रिपोर्ट यह भी बताती है कि विश्व में करीब दस करोड़ से अधिक लड़कियां विभिन्न खतरनाक उद्योग-धंधों में काम कर रही हैं।  



लापता बच्चों की खोज के लिये सरकार ने कई अभियान भी चलाये हैं 
ऑपरेशन स्माइली...
गुमशुदा बच्चों को तलाश कर उनके उनके माता-पिता तक पहुंचाने के लिये ऑपरेशन स्माइल का निर्माण किया गया था। सबसे पहले गाजियाबाद में  ऑपरेशन स्माइली का प्रोग्राम चलाया गया था। जो कि रेलवे स्टेशनों,बस अड्डों, छोटे-छोटे ढ़ाबों और खाने पीने की दुकानों और घरों में काम करने वाले नाबालिग बच्चों को ढूँढकर अपने परिवार तक पहुंचाने का कार्य करता था।
 गाजियाबाद में इसकी कामयाबी होते ही पूरे उत्तर प्रदेश में यह अभियान चला दिया गया।
 ताजा आँकड़ों के हिसाब से-- 
फरवरी 2015 ---490 गुमशुदा बच्चे बरामद--- 354 लड़कियाँ,और 136 लड़के थे।
 मार्च 2015  में 710 गुमशुदा बच्चे बरामद---- 516 लड़कियाँ और 194 लड़के थे। 
पुलिस मुख्यालय से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश में अभी भी लगभग साढ़े 3 हजार बच्चे गायब हैं, इनमें ढाई हजार से अधिक लड़कियां हैं। 
ट्रैक चाइल्ड वेब पोर्टल-  
यह वेब पोर्टल 2011-12 में शुरू किया गया लेकिन यह पुलिस के द्वारा ही संचालित की जा सकती है। इसे किसी भी नागरिक को चलाने का या देखने का अधिकार नहीं होता। पुलिस को देश के किसी भी कौने में गुम हुये बच्चे का इस वेबसाइट से पता लग जाता है, क्योंकि सभी अलग-अलग राज्यों की पुलिस ही इस वेबसाइट को  चलाती है। फ़रवरी 2016 में बाल संरक्षण समीति की बैठक में इस पोर्टल को अपडेट किये जाने की बात की गई। साथ ही डी डी सी सुनील कुमार नें अनाथ, बेसहारा, गुमशुदा, घर छोड़कर भागे गये बच्चो को कानूनी रूप से गोद लेनें तथा बालगृह में रह रहे 65 बच्चों के पठन-पाठन तथा नियमित जाँच के निर्देश दिये।
खोया पाया पोर्टल
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय तथा इलेक्ट्रॉनिक एवं सूचना प्रौद्योगिकी विभाग के सहयोग से 2 जून 2015 को 'खोया-पाया' पोर्टल जारी किया। इसमें लापता बच्चों की खोज के लिये बच्चे का ब्योरा और फोटो 'खोया-पाया' पोर्टल पर डालना होता है। इस पोर्टल पर कोई भी नागरिक गुमशुदा या कहीं मिले बच्चे अथवा वयस्क की सूचना अपलोड कर सकता है। यह पोर्टल ऐसे साधनहीन लोगों की मदद करता है जो गरीब हैं और जिन्हें बच्चों के खो जाने पर रोकर चुप  बैठ जाना पड़ता है। लापता बच्चे की सूचना आदान-प्रदान करने वाला 'खोया-पाया' एप्प मुफ्त में मोबाइल पर भी डाउनलोड किया जा सकता है। इसलिए यह दूर दराज के गांवों में भी कारगर साबित हुआ है। इस पोर्टल से पुलिस सहायता और बाल सहायता वेबसाइट भी जोड़ दी गई है।
इन सब वेब पोर्टल के अलावा, कई पुलिस थानों में अलग-अलग तरह के अभियान चलाये जा रहे हैं और लापता बच्चों की खोजबीन की जा रही है।  फ़ेसबुक तथा व्हाट्स एप्प भी गुमशुदा बच्चों को ढूँढने में सहायक सिध्द हो रही है।
आई सी एम ई सी ( इंटेरनेशनल सेंटर फ़ार मिसिंग एंड एक्स्प्लोईटेड चिल्ड्रन) की रिपोर्ट के अनुसार हर साल लापता बच्चों की संख्या—
सयुंक्त राज्य-467000
जर्मनी-100000  
दक्षिणी कोरिया-31425
अर्जेंटिना-29500
भारत- 70000
स्पेन- 20000
कनाडा- 40100
युनाइटेड किंगडम(U K)-140000

एन सी एम ई की रिपोर्ट के अनुसार युनाईटेड स्टेट्स में तकरीबन 8000000 बच्चे हर साल गुम होते हैं जिसमें 203000 बच्चे अपहरण के शिकार होते हैं।
पाकिस्तान में हर साल गायब होने वाले बच्चों की संख्या 3 हजार है, जबकि हमसे अधिक आबादी वाले चीन में 1 साल में 10 हजार बच्चे गायब होते हैं।
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के मुताबिक विभिन्न राज्यों में जनवरी 2012 से फरवरी 2016 के बीच गायब हुए बच्चों की संख्यां कुल 1,94,213 , जिनमें से 1,29,270 बच्चों को  बरामद कर लिया लेकिन  64,943 बच्चों का कुछ  पता नहीं चल पाया। 
नंवबर 2014 से लेकर 30 जून 2015 के बीच प्रति महीने 2,154 नाबालिग लड़के, 2,325 नाबालिग लड़कियां  गायब हुई हैं, जबकि हर माह 2,036 नाबालिग लड़के, 2,251 नाबालिग लड़कियों को खोज लिया गया है। यानि कि आठ महीनों में  35,841 नाबालिग बच्चे गुम हुए हैं, जिनमें से 34,292 बरामद कर लिए गए हैं, 1,549 नाबालिग बच्चों का कोई सुराग नहीं लग पाया है। 
लापता होने वाले बच्चों की संख्या में महाराष्ट्र अव्व्ल नंबर पर है, जहां पिछले 3 साल में 50 हजार बच्चे गायब हुए। उसके बाद मध्यप्रदेश से 24,836 बच्चे गायब हुए। दिल्ली में 19,948 और आंध्रप्रदेश 18,540 का नंबर क्रमशः तीसरा और चौथा है।


सुनीता शानू